मंगलवार, 19 जनवरी 2010

रविवार, 17 जनवरी 2010

इसलिए गर्व से कहते हैं हम हिन्दू हैं

मौत भी न व्यर्थ जाने दी उसी उस्ताद ने ........



जीते जी भी

जिन्होंने अपना सर्वस्व लगा दिया था दाव पर

साम्यवादी सादगी और सामाजिक समभाव पर

मौत भी व्यर्थ जाने दी उसी उस्ताद ने

धरती माँ का क़र्ज़ चुकता कर दिया औलाद ने


देह अपनी कर गये जो दान

उन्हें मेरी

हार्दिक आदरांजलि


दिवंगत

ज्योति बाबू बसु को

विनम्र श्रद्धांजलि



सोमवार, 11 जनवरी 2010

हिन्द की खातिर मिटने वालो हमको तुम पर नाज़ है .....

चार टोटके ले कर खड़े हैं ...........


मूर्ख हैं वे जो लम्बी-लम्बी रचनाओं के सृजन में पड़े हैं


हिट तो वे हैं जो मंच पर केवल चार टोटके ले कर खड़े हैं



-बाबा सत्यनारायण मौर्य

रविवार, 10 जनवरी 2010

आओ बचाएं हिन्दी कवि सम्मेलनों की स्वस्थ परम्परा .....





हास्य कवि सम्मेलनों के मंच पर एक हंगामेदार पैरोडीकार के रूप में पिछले

25 वर्षों के दौरान मैंने देश के लगभग सभी नामी ग़िरामी कवियों-

कवयित्रियों के साथ कविता पढऩे का आनन्द और गौरव प्राप्त किया है. साथ

ही साथ यह कटु अनुभव भी प्राप्त किया है कि बड़े और महंगे कवियों के समक्ष

यदि मंच पर कविता सुनाने का अवसर हो, तो नये कवियों को चाहिए कि वे

कुछ भी फालतू सी तुकबन्दियां ही सुनायें. भूलकर भी कभी अपनी अच्छी

कवितायें सुनाकर श्रोताओं की भारी वाहवाही और तालियां लूटने का अपराध

करें, क्योंकि इससे अनेक जन को तकलीफ़ होती है.



सबसे पहले तकलीफ़ होती है कवि सम्मेलन के आयोजक को जिसने

हज़ारों रुपये दे-देकर उन तथाकथित बड़े कवियों को बुलाया होता है जो कि

मंच पर सैकड़ों रुपयों का काम भी नहीं दिखा पाते. दिखायें भी कैसे? अपनी

सारी ऊर्जा तो वे बेचारे कवि-सम्मेलन से पूर्व ही खर्च कर चुके होते हैं

मदिरा पान में, ताश खेलने में, अन्य कवियों की निन्दा करने में या उपलब्ध

हो तो कवयित्री से आँख मटक्का करने में. सो मंच पर या तो वे ऊंघते रहते हैं

या ज़र्दे वाला पान मसाला चबा-चबाकर उसी गिलास में थूकते रहते हैं

जिसमें उन्होंने कुछ देर पहले पानी पीया होता है. उसी मंच की सफेद झक

चादरों पर तम्बाकू की पीक पोंछते रहते हैं जिस मंच की धूल माथे पर लगा

कर वे चढ़े होते हैं. और भी बहुत से घृणित कार्य वे बख़ूबी करते हैं. सिर्फ़

कविता ही नहीं कर पाते. कवितायें सुनाते भी हैं तो वही वर्षों पुरानी जो

श्रोताओं ने पहले ही कई बार सुनी होती हैं. ऐसे में कोई नया कवि यदि

कविताओं का ताँता बान्ध दे और जनता के मानस पर छा जाए तो

आयोजक हतप्रभ रह जाता है. वह अपना माथा पीट लेता है यह सोचते हुए

कि क्यों बुलाया उन महंगे गोबर गणेशों को. इससे अच्छा तो नये कवियों

को ही बुलाता. माल भी कम खर्च होता और मज़ा भी ज्य़ादा आता. वह

यह सोच कर भी दुःखी होता है कि जो 'महारथी' 10 मिनट भी श्रोताओं के

समक्ष टिके नहीं, उन्हें तो नोटों के बण्डल देने पड़ रहे हैं और जिन बेचारों ने

सारी रात माहौल जमाया उन्हें देने के लिए कुछ बचा ही नहीं.



कवि सम्मेलन के आयोजक को बड़ी तकलीफ़ तो इस बात से होती है कि

वे 'बड़े कवि' कवि-सम्मेलन को पूरा समय भी नहीं देते . सब जानते हैं

कि कवि-सम्मेलन रात्रि 10 बजे आरम्भ होते हैं और भोर तक चलते हैं.

परन्तु 'वे' कवि जो मंच पर पहले ही बहुत विलम्ब से आते हैं, सिर्फ़

12 बजे तक मंच पर रुकते हैं और जब तक श्रोता कवि-सम्मेलन से पूरी

तरह जुड़ें उससे पूर्व ही कार्यक्रम समाप्ति की घोषणा भी कर देते हैं। (

चूंकि अपना पारिश्रमिक वे एडवांस ही ले चुके होते हैं इसलिए आयोजक

द्वारा रुपये काट लिए जाने का कोई भय तो उन्हें होता नहीं. लिहाज़ा वे

अपनी मन मर्जी चलाते हैं) बेचारे श्रोता जो मीलों दूर से चल कर आते हैं

कविता का आनन्द लेने के लिए, वे प्यासे ही रह जाते हैं. आयोजक उन

कवियों से बहुत अनुनय-विनय करता है, लेकिन 'वे' मंच पर नहीं रुकते.

रुकें भी किस बल से? जब पल्ले में कविता ही हो. यह ओछी परम्परा

कविता और कवि-सम्मेलन दोनों के लिए घातक है. क्योंकि

लाख-डेढ़ लाख रुपया खर्च करने वाले आयोजक को जब कवियों से

सहयोग और समय नहीं मिलता तो वो भी सोचता है 'भाड़ में जायें कवि

और चूल्हे में जाये कवि-सम्मेलन.'' इससे अच्छा तो अगली बार आर्केस्ट्रा

का प्रोग्राम ही रख लेंगे. सारी रात कलाकार गायेंगे और जनता को भी

रात मज़ा मिलेगा. लिहाज़ा वह कवि-सम्मेलन हमेशा के लिए बन्द हो

जाता है. ज़रा सोचें, यदि ऐसे ही चलता रहा तो क्या एक दिन ऐसा

आयेगा जब.. कवि-सम्मेलन केवल इतिहास के पन्नों पर पाये जाएंगे।



कविता के नाम पर लाखों रुपये कूटने वाले कवियों को इस बारे में

सकारात्मक भूमिका निभानी चाहिए. साथ ही आयोजकजन को भी थोड़ा

सख्त रहना चाहिए. खैर...



आयोजक से भी अधिक तकलीफ़ होती है उन '50 हज़ार लूंगा'' मार्का

कवियों को जो देखते हैं कि वे तो धरे ही रह गए और कल का कोई लौंडा

पूरा कवि-सम्मेलन लूट ले गया. तब वे क्रोध के मारे दो पैग और लगा

लेते हैं. फलस्वरूप बेचारों का बचा-खुचा होश भी हवा हो जाता है. तब वे

गला ख़राब होने का या लगातार कार्यक्रमों में व्यस्त रहने के कारण

शारीरिक थकान का बहाना बनाते हुए एक-दो 'हिट' रचनाएं सुना कर

तुरन्त अपना स्थान ग्रहण कर लेते हैं, वे सोचते हैं, जल्दी माइक छोड़

देंगे तो प्यासी जनता 'वन्स मोर - वन्स मोर' चिल्लाकर फिर उन्हें

बुलाएगी, लेकिन ऐसा होता नहीं. क्योंकि जनता उन सुने सुनाये

कैसेट्स के बजाय नये स्वरों को सुनना चाहती है. लिहाज़ा उनका यह

दाव भी खाली जाता है तो वे और भड़क उठते हैं. वाटर बॉटल में

बची-खुची सारी मदिरा भी सुडक लेते हैं और आयोजक की छाती पर

जूते समेत चढ़ बैठते हैं कि जब इन लौंडों को बुलाना था तो हमें क्यों

बुलाया? असल में वे तथाकथित ''स्टार पोएट'' अपने साथ मंच पर उन्हीं

कवियों को पसन्द करते हैं जो कि उनके पांव छू कर काव्य-पाठ करें,

''दादा-दादा'' करें, एकाध कविता उन्हें समर्पित करें और माइक पर

ठीक-ठाक जमें ताकि उनका ''स्टार डम'' बना रहे. जो कवि उनके समूचे

आभा-मंडल को ही धो डाले, उसे वे कैसे बर्दाश्त कर सकते हैं?



अन्ततः सर्वाधिक तकलीफ़ तो स्वयं उस नये कवि को ही झेलनी पड़ती है

जो उस रात माइक पर तो जम जाता है लेकिन मंच से उखड़ जाता है.

क्योंकि मन ही मन कुढ़े हुए ''बड़े'' कवि उसी वक्त गांठ बान्ध लेते हैं

कि ''इसको'' मंच से आऊट करना है. परिणामतः उस कवि को भविष्य में

काव्य-पाठ का अवसर ही नहीं मिलता. क्योंकि ये तथाकथित दिग्गज

कवि जहां कहीं भी कवि-सम्मेलन करने जाते हैं, आयोजक से पहले ही

पूछ लेते हैं कि और कौन-कौन कवि रहे हैं? आयोजक की बताई सूची

में यदि 'उस' का नाम हो, तो वे तुरन्त कहते हैं, ''ये तो महाफालतू कवि

है, कवि नहीं है कचरा है कचरा. इसे मत बुलाओ, नहीं तो पूरे प्रोग्राम का

भट्ठा बैठ जाएगा. ये तो सांप्रदायिक कविता पढ़ता है, तुम्हारे शहर में

दंगा करवा देगा. ये तो पैरोडियां सुनाता है, मंच को सस्ता बना देगा.''

आयोजक यदि कहे कि रहने दीजिए भाई साहब, इस बार तो बुला लिया है.

अगली बार नहीं बुलायेंगे. तो ''उन'' का सीधा जवाब होता है. ''ठीक है, आप

उसी से काम चलाइए, हम नहीं आयेंगे.'' चूंकि आयोजक को लोगों से पैसा

इकट्ठा करना होता है और पैसा ''नाम वालों'' के नाम पर ही मिलता है.

सो चाहते हुए भी आयोजक को उनकी बात माननी पड़ती है. लिहाज़ा

नया कवि, वह ऊर्जावान कवि, वह मंच-जमाऊ कवि कवि-सम्मेलन

की टीम से कट जाता है.



अतः नये कवि यदि अपना ही भला चाहते हों, तो भूलकर भी कभी महंगे

'कवियों' के सामने माइक पर अपना लोहा मनवायें. हॉं, मंच पर जमने

का, श्रोताओं का मन जीतने का ज्य़ादा ही शौक और सामर्थ्य हो तो

मुझसे सम्पर्क करें. मेरे द्वारा आयोजित कवि-सम्मेलन में आयें और

जितना ज़ोर हो, सारा दिखा दें. मैं उन्हें मान-सम्मान और उचित

पारिश्रमिक दिलाने के लिए वचनबद्ध हूं. इस आलेख के माध्यम से मैं

आमन्त्रित करता हूं तमाम प्रतिभाशाली रचनाकारों को कि हिन्दी कविता

का मंच तुम्हें पुकार रहा है. सहायता के लिए पुकार रहा है. आओ, इसे

ठेकेदारों की कै़द से छुड़ायें, वर्षों पुरानी घिसी-पिटी लफ्फ़ाजी से मुक्त

करायें और नये काव्य की नई गंगा बहायें.



इस पावन आन्दोलन का आरम्भ मैं पहले ही कर चुका हूं. किन्तु मुझे

सख्त ज़रूरत है उन मेधावी रचनाकारों की जो जोड़-तोड़ में नहीं, अपितु

सृजन में कुशलता रखते हों. आने वाला समय हिन्दी, हिन्दी कविता और

हिन्दी कवि सम्मेलनों के लिए उन्नति का मार्ग प्रशस्त करेगा ऐसा

मेरा दृढ़ विश्वास है. ‌


-अलबेला खत्री



वह कैसा हिन्दुस्तानी है..........

ले आँख मीच अन्याय देख, वह खून नहीं है, पानी है

हिन्दी से जिसको प्यार नहीं, वह कैसा हिन्दुस्तानी है


- डॉ सारस्वत मोहन 'मनीषी'